Monday, June 23, 2014

ईश्वर न्यायी है या दयालु?


| ओ३म् |

वैदिक सिद्धांतो पर आधारित

"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न


ईश्वर न्यायी है या दयालु?


विमल - तुम्हारा कल का प्रश्न था दया और न्याय दोनों गुण ईश्वर में साथ-२ कैसे रह सकते है? वास्तव में दया और न्याय दोनों साथ-२ ही रहते हैं । अन्तर केवल यह है, दया दयालु ईश्वर अपनी तरफ से करता है और न्याय वह जीवो के कर्म के अनुसार करता है । जैसे किसान ने खेत में दाना बोया, उस एक दाने की एवज में सैकडों दाने भगवान् ने उसे दिये । यह उसकी दया है अब न्याय उसका यह है, जैसा तुमने बोया वैसा ही काटोगे । जैसा करोगे वैसा ही भरोगे । चना बोकर चना प्राप्त हो सकता है गेहूँ नहीं, यहीं उसका 'न्याय' है । एक पिता के चार पुत्र हैं । चारों को उसने एक-२ हजार रुपया दिया । यह उसकी पुत्रों पर दया है । परन्तु यदि कोई दूसरे पुत्र से रुपये जबरदस्ती छीन लेता है, तो पिता रुपये छीनने बाले पुत्र को दण्ड देता है । यह उसका 'न्याय' है । रुपयों का देना पिता का अपनी ओर से है इसलिए यह 'दया' है और दुष्ट पुत्र को दण्ड देकर अधिकारी को उसका अधिकार दिलाना पिता का न्याय है । एक राजा डाकू को प्राणदण्ड देता है यह उसका 'न्याय' है, प्राण-दण्ड देकर डाकू द्वारा पीडित मनुष्यों की वह रक्षा करता है यही उसकी दया है । यदि राजा डाकू को छोड़ ड़ेता है तो यह उसका 'अन्याय' है। वास्तव ने जो मतलब 'दया' से निकलता है वही न्याय से निकलता है जहाँ न्याय न हो वहाँ दया कैसी? क्या अन्यायी मनुष्य भी कभी दयालु हो सकता है? 'अन्यायी' तो स्वार्थी होता है, दयालु नहीं | परमात्मा न्यायकारी होने से दयालु है । उसने जीवों के कल्याण के लिए सृष्टि बनाईं, यह उसकी पूर्ण दया है । ईश्वर कर्मानुसार प्रत्येक प्राणी को फल दे रहा है, यही उसका न्याय है।



कमल - जब कोई मनुष्य बुरा कर्म करता है, तो उसको परमात्मा जानता है या नहीं? यदि जानता है, तो उसे तत्काल ही क्यों नहीं रोक देता ?



विमल - परमात्मा प्रत्येक को बुरे कर्म से तत्काल ही रोकता है । इसका सबूत यह है, जब मनुष्य बुरा कर्म करने को उद्यत होता है तो उसके अंतकरण में उसी समय भय, लज्जा, शंका के भाव  उत्पन्न होते हैं और अच्छा कर्म करता है तो हृदय में उसी समय आनन्द उत्साह उत्पन्न होता है । यह सब परमात्मा की ओर से ही होता है । इसी को अन्तकरण को आवाज कहते है । मनुष्य ही क्या पशुओं तक के अन्तकरण में बुरा कर्म करने पर भय, लज्जा, शंका उत्पन्न होती है । कुत्ते को जब रोटी का टुकडा डाला जाता है, तो यह उसी जगह उस टुकडे को आनन्दपूर्वक खाता रहता है, और पूँछ हिलाता जाता है । वही कुत्ता जब रोटियाँ चुराकर भागता है, तो न पूँछ हिलाता है और न खुला खाता है । बल्कि छिपकर आड़ में खाता है, क्यों? इसलिए कि वह जानता है, यह पाप है, चोरी है इससे सिद्ध हुआ कि परमात्मा बुरे कर्म करने से हरेक प्राणी को उसी वक्त रोकता है । हाँ इतनी बात अवश्य है परमात्मा किसी जीव की कर्म करने को स्वतन्त्रता को नहीं छीनता। स्वतन्त्रता छीन भी कैसे सकता है, जबकि जीव 'अनादि' है और कर्म करने में स्वतन्त्र है? दूसरे यदि ईश्वर जीवों की स्वतन्त्रता छीन भी ले तो वे जीव न तो जीव ही रहेंगे और न उनकी उन्नति ही हो सकेंगी । जैसे यदि किसी स्कूल में लड़कों का इम्तिहान हो रहा है, मास्टर तमाम लडकों पर निगरानी रख रहा है कि कोई लड़का किसी का सवाल न देख ले । कईं लड़के उत्तर गलत भी लिख रहे हैं । मास्टर गलत उत्तर लिखते हुए भी देख रहा है । परन्तु वह उस समय लड़कों को रोकता नहीं, लिखने देता है। यह उनकी स्वतन्त्रता में बाधा नहीं डालता । यदि मास्टर समस्त लड़कों को स्वयं ही सही उत्तर लिखा दे, तो इसमें लड़कों की व्यक्तिगत उन्नति क्या हो सकती है? और उनको पढाकर परीक्षा लेने का अर्थ ही क्या निकल सकता है? ऐसी अवस्था में वे विद्यार्थी, विद्यार्थी ही न रहेंगे, बल्कि मशीन के पुर्जे जैसे बन जायेंगे । मास्टर का काम तो लड़कों को अच्छी तरह पढा देना है पढ़कर प्रश्नो का सही उत्तर लिखना लड़कों का अपना काम है । इसी प्रकार परमात्मा का काम तो जीवो को वेद द्वारा विधि-निषेध के कर्मो का ज्ञान प्राप्त करा देना है, अच्छे या बुरे कर्म करना नहीं । कर्म तो जीव स्वतन्त्रता से ही करेंगे । यदि ज्ञान के अनुकूल कर्म करेंगे, तो सुख प्राप्त करेंगे और अज्ञान के अनुकूल करेंगे तो दुःख प्राप्त करेंगे । वेद ज्ञान के अतिरिक्त प्रत्येक प्राणी के अंतकरण में भी बुरा कर्म न करने का आदेश परमात्मा की और से अवश्य होता है । उस आदेश पर प्राणी ध्यान दे या न दे, यह उसकी अपनी बात है । परमात्मा का बुरे कर्मों से रोकना इसी को कहा जाता है । जीवों के कर्म करने की स्वतन्त्रता छीन लेना रोकना नहीं ।



कमल - अच्छा, परमात्मा कर्मो का फल तत्काल क्यों नहीं देता?



विमल - प्रत्येक कर्म का उसी समय फल देना बन भी कैसे सकता है? कल्पना करो कि परमात्मा ने किसी मनुष्य के कर्म पर प्रसन्न होकर उसे तत्काल फल दिया कि यह मनुष्य एक साल तक आनन्द भोगेगा । अब दूसरे दिन उसने बुरा कर्म किया उसका परमात्मा ने फल दिया कि एक वर्ष दुःख भोगेगा । अब सोचो, यदि यह मनुष्य एक साल तक आनंद भोगता है तब तो उसने पहले कर्म का फल प्राप्त कर लिया और परमात्मा का नियम भी पूर्ण हो गया अब इस साल के बीच में चाहे वह जितने ही बुरे कर्म करे, उसका फल इस साल नहीं मिलना चाहिए । यदि इसी साल बुरे कर्म का भी फल मिलता है, तो पहले कर्म की एक साल की आनन्द भोगने की आज्ञा ईश्वर की टूट गई । जब जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, तो कभी बुरे कर्म करेगा और कभी अच्छे कर्म करेगा ही यदि ईश्वर सबका तत्काल फल देता रहे, तो न तो बुरे कर्मों के फल की व्यवस्था बन सकेगी और न भले कर्मों के फल की व्यवस्था बन सकंगी । क्योंकि किसी भी कर्म के फल का समय पूर्ण न हो सकेगा । इसलिए परमात्मा प्रत्येक कर्म का फल अपनी नियत व्यवस्था के अनुसार ही देता है ।


कमल - यह संसार में जो लाखों योनियों हैं, क्या कर्म के फल से ही प्राप्त होती हैं?


विमल - दुनियाँ में दो प्रकार की योनियों है । 'भोग योनि' और 'उभय योनि' । यह सब जीवो को कर्मानुसार ही प्राप्त हुई है ।



कमल - 'भोग योनि' और 'उभय योनि' से क्या तात्पर्य है?



विमल - 'भोग योनि' वह है जिसमें जीव सुख दुख भोगते हैं परन्तु भविष्य के लिए कोई कर्म नहीं करते । जैसे पशु-पक्षी आदि । 'उभय योनि' मनुष्य योनि है । इसमें मनुष्य सुख दुख रूप फल भी भोगते और भविष्य के लिए अच्छे बुरे कर्म भी करते हैं ।



कमल - मनुष्य को 'उभय योनि' में क्यो माना गया है?


विमल - पशु पक्षियों को केवल खाने की चिन्ता रहती है, पदार्थों के उत्पन्न करने की नहीं । उनका जन्म परमात्मा की व्यवस्था के अनुसार केवल भोग भोगने को ही है, कमाने को नहीं । देखो! गेहूँ चना, जौ आदि अनाज सब पशु-पक्षी खाते हैं । परन्तु वे उत्पन्न नहीं कर सकते क्योंकि उनमें विचार-शक्ति नहीं है । परन्तु मनुष्य अपनी विचार शक्ति के आधार पर पशुओं से काम लेकर अनाज उत्पन्न कर सकता है । 'विचारशक्ति' होने के कारण ही इसे 'उभय योनि' कहा गया है । यह पदार्थों का भोग भी करता है और उन्हें उत्पन्न भी करता है । अपनी विचारशक्ति के सहारे मनुष्य समस्त पशु-पक्षियों को अपने काबू में कर लेता है । एक गड़रिये के आधीन हजारों भेड़े रहती हैं । एक ग्वाले के आधीन हजारों गाये रहती है । मनुष्य शेर और बड़े-२ खूँखार जानवरों को सर्कस में नाच नचा देता है । जानवरों से ही क्या अपनी विचारशक्ति के कारण पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि तत्वों से भी मनमाना काम ले लेता है । ईश्वर ने मनुष्य को पक्षियों जैसे पर नहीं दिये जो उड़ सके परन्तु इसने हवाई जहाज बना लिये । पानी में चलने के लिए मछली, कछुओं जैसे शारीरिक साधन नहीं दिये, लेकिन इसने पानी के जहाज तैयार कर लिए । गिद्ध और उकाब जैसी दूर की चीज देखने वाली  आँखे नहीं दी, परन्तु इसने दूरबीन और खुर्दबीन का निर्माण कर लिया । क्या बात है? यहीं कि मनुष्य में विचारशक्ति है । इसलिए वह 'उभय योनि' है । यह पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोगता है और भविष्य के लिए कर्म भी करता है ।



कमल - क्या जितनी योनियों प्राप्त होती है कर्मानुसार ही होती हैं और क्या मनुष्य का जीव पशु-पक्षी आदि योनियों में भी जाता है?


विमल - हाँ, समस्त योनियाँ स्वकर्मानुसार ही प्राप्त होती है । जीव समस्त योनियों में आता जाता है । मनुष्य योनि में किये हुए कर्म ही पाप-पुण्य से सम्बन्ध रखते हैं क्योकि मै बता चुका हूँ कि  मनुष्य में ही 'विचारशक्ति' है । जब यह 'विचारशक्ति' का दुरूपयोग करता है तो पापी बनकर अनेक योनियों में भ्रमण करता है। ईश्वर अपनी न्याय-व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक जीव कों उसके सुधार के लिये ही योनियाँ प्रदान करता है, मनुष्य जो भी अच्छे बुरे कर्म करता है, उसके संस्कार सूक्ष्म शरीर पर पड़ते हैं । यहीं अच्छे बुरे संस्कार उसे उत्कृष्ट-निकृष्ट योनियों प्राप्त कराते हैं ।



कमल - 'मनुष्य योनि' कैसे प्राप्त होती है और मुक्ति कब प्राप्त होती है?

विमल - जब पाप की अपेक्षा पुण्य के संस्कार उत्कृष्ट होते हैं तब मनुष्य योनि प्राप्त होती है । और जब निष्पाप कर्मों के संस्कारों की प्रबलता होती है और ज्ञान हो जाता है, तो मरने पर मुक्ति प्राप्त हो जाती है । दूसरे शब्दों में जीव सांसारिक दुखो से छूटकर परमानन्द को प्राप्त हो जाता है ।



कमल - हाथी का जीव चींटी में कैसे समाता होगा? क्योंकि बड़े शरीर के लिए बड़ा जीव और छोटे शरीर के लिए छोटा जीव होता होगा?



विमल - जीव छोटे बडे नहीं होते, जीव समस्त प्राणियों के एक जैसे हैं । शरीर में छोटा बडापन या भिन्नता होती है । जैसे एक ही इंजन में बहुत सी मशीनें लगी हुई हैं कोई मशीन काटती है, कोई छाटती है, कोई छापती है, इंजन सबको एक ही प्रकार की शक्ति दे रहा है, परन्तु मशीनों के पुर्जा में भिन्नता होने के कारण काम भिन्न-२ प्रकार के हो रहे है । देखो जहाँ किसी प्राणी को मनुष्य की तरह होठ मिले हैं वहाँ वह दूध चूसता है, जहाँ चोंच मिली है वहीं वह ठोंगे मारता है एक खिलाडी जब मुर्गे का चोगा पहिन कर ठोंगे मार सकता है फिर जीव में भेद कहाँ रहा? शरीरों में ही तो भेद हुआ?



कमल - क्या जन्म कर्मानुसार होता है? यदि होता है तो जन्म के पहले कर्म कैंसा? जब बिना शरीर कर्म नहीं हो सकता तो जीव के संग जब शरीर नहीं था तो उसने कर्म किया कैसे ? और जन्म रुप बन्धन में फंसा कैसे?



विमल - जन्म तो अज्ञानता से होता है और योनियों कर्मानुसार प्राप्त होती हैं । जैसे पहले स्कूल में लड़के का दाखिल होना अविद्या के कारण है, और श्रेणियाँ प्राप्त करना कर्म या योग्यत्ता के आधार पर है, इसी प्रकार संसार रूपी स्कूल में जीव का आना अर्थात् प्रथम शरीर धारण करना अल्पता के कारण है और अनेक श्रेणियाँ रुपी योनियों को प्राप्त करना कर्मानुसार है । दूसरे जीव का एक ही जन्म नहीं, अनन्त बार शरीर से संयोग हुआ है और होता रहेगा । अनेक जन्मो के आत्मा पर संस्कार होते हैं । यदि कहो सृष्टि के आदि में कौन से कर्मों के संस्कार थे तो उत्तर यह है कि सृष्टि के आदि में  उससे पूर्व सृष्टि के संस्कार थे । सृष्टि प्रवाह से अनादि है, दिन और रात की तरह निरन्तर चक्र चला आता है और चलता जायेगा।


कमल - कुछ मनुष्यों का कहना है कि छोटे-२ प्राणियों में विकास होकर मनुष्य का शरीर बना है । मनुष्य सृष्टि का अन्तिम विकास है । यह कहाँ तक ठीक है?



विमल - मित्र, यह बात गलत है । यदि ऐसा होता तो मनुष्य की उपस्थिति में अन्य प्राणियों का अभाव होना चाहिए था, परन्तु देखा यह जाता है कि मनुष्य भी मौजूद हैं और अन्य छोटे-बड़े प्राणी भी मौजूद हैं । फिर कैसे माना जाए कि प्राणियों का विकास होते-२ मनुष्य का विकास हुआ है । जब अंकुर में विकास होकर वृक्ष बन जाता है फिर अंकुर कहाँ रहता है? कली में विकास होकर जब फूल बन जाता है तब कली कहाँ रहती है? दूसरी बात विचारणीय यह है कि मनुष्य के अतिरिक्त जो भी प्राणी हैं, उन सबमें सामान्य ज्ञान है परन्तु विशेष ज्ञान मनुष्य में ही पाया जाता है । मनुष्य में विशेष ज्ञान कहाँ से हुआ? विचार शक्ति से । यह 'विचारशक्ति' अन्य प्राणियों में नहीं पाई जाती । यदि पशु-पक्षी इत्यादि में विचारशक्ति होती तो मनुष्य उन पर शासन नहीं कर सकता था | देखो यह बात मानी हुई है कि अभाव से भाव कभी नहीं होता । यदि मनुष्य अन्य प्राणियों का विकसित रुप होता तो अन्य प्राणियों में विचार-शक्ति पाई जाती, परन्तु ऐसा नहीं है । विकासवाद कहता है कि बन्दर से मनुष्य का विकास हुआ है । यदि ऐसा होता तो मनुष्य का बच्चा पानी में डाल देने से डूब नहीं सकता था । जब बन्दर से मनुष्य बना है तो बन्दर की तमाम शक्तियाँ मनुष्य में विकसित होनी चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं है । बन्दर के बच्चे को पानी में डाल दो तो फौरन तैर कर निकल जायगा । परन्तु मनुष्य का बच्चा तैरना न जानने के कारण डूब जायेगा । इससे सिद्ध है कि मनुष्य,पशु-पक्षी आदि जितनी भी योनियाँ है । सबका निर्माण अपनी न्याय-व्यवस्था से कर्मानुसार भगवान् करता है ।



कमल - क्या कोई भूत योनि भी है? लोग भूत प्रेतों की बड़ी कहानियाँ सुनाते हैं । भोपे, सयाने और मौलवी गण्डे ताबीज देते हैं, झाड़ा फूंकी करते हैं तथा भूत-प्रेत्तों को भी उतारते हैं । क्या यह ठीक है?



विमल - भूत प्रेत की कोई सत्ता नहीं है । लोग जो कहानियाँ सुनाते है सब गढ़ी हुई होती हैं । भूत भविष्य और वर्तमान समय-भेद के नाम है। भूत का अर्थ गुजरा हुआ या बीता हुआ है । जब कोई मनुष्य मर जाता है, तो उसकी सत्ता वर्तमान नहीं रहती "भूत" में गिनी जाती है और प्रेत कुछ नहीं है । जितने भी लोग भूत प्रेत देखने की बाते कहते हैं वे अंधेरे में देखने को कहते हैं । जितनी भी मिथ्या बातें हैं सब अंधेरे में ही रहती हैं । संसार की सूक्ष्म और स्थूल चीजें इन्दियों तथा यंत्रो द्वारा हर समय देखी जा सकती हैं । यदि भूत प्रेत कोई योनि होती तो वह भी अवश्य दिखाई देती परन्तु ऐसा नहीं है । जिनके मन में भ्रम और भय होता है, या जिनके मन पर भूत-प्रेतों के संस्कार पड़े होते हैं वह उनको ही दिखाई देते है, अन्यो को नहीं । मनोविज्ञान का सिद्धान्त है- मन पर जैसे संस्कार होंगे, भयभीत होने पर या मानसिक रोगों की अवस्था में वैसा ही चित्र दिखाई देने लगेगा । सोचने की चीज है, जब मनुष्य मर जाता है तो शरीर पंच भूतों में मिल जाता है और जीव कर्मानुसार शरीर धारण कर लेता है । फिर कैसा भूत और कैसा प्रेत? यदि कहा जाये भूत-प्रेत जीवात्मा या सूक्ष्म शरीर का नाम है तो जीवात्मा बिना स्थूल शरीर के न तो दिखाई दे सकता है, और न बिना शरीर के सम्बन्धित कार्य कर सकता है । यहीं सूक्ष्म शरीर का हाल है। रही गण्डे, ताबीज, झाडा, फूंकी और भूत-प्रेत उतारने की बात सो यह भी कोरा ढोंग है । गण्डे, ताबीज, झाड़ा, फूंकी करने से रोग दूर हो जाते या बच्चे जीवित हो जाते तो गण्डे ताबीज और झाडा फूंकी करने वालो के बच्चे न तो कभी रोगी होते और न कभी मरते । परन्तु देखा यह जाता है उनके बच्चे भी मरते है, और वे स्वयं भी काल के ग्रास हो जाते हैं । यदि झाडा-फूंकी से काम चल जाता, तो डाक्टर और वैद्यो की जरुरत ही क्या थी, और क्या औषधालय और अस्पतालों की जरुरत थी? किसी के सिर पर भूत-प्रेत या देवी-देवता आने की कलई तब खुल जाती है, जब कोई कठिन प्रश्न उससे किया जाता है । उनकी परीक्षा करने वालो को चाहिए कि यदि हिन्दू देवता किसी के सिर पर आया हो तो उससे वेद मन्त्र का अर्थ पूछना चाहिए और इस्लामी देवता सैयद, पर किसी पर आया हो, तो कुरान को आयत पढ़वानी चाहिए । ऐसा करने से उसके सारे ढोंग और बहाने प्रकट हो जायेंगे। प्राय: बहुत सी बाते ऐसी भी होती हैं जिन्हें चालाक आदमी कर दिखाते हैं । जब लोगों की समझ में वे बाते नहीं जाती, तो  वे समझते हैं कि उसने भूत -प्रेत वश में किया हुआ है । पर वास्तव में भूत-प्रेत की कोई सत्ता नहीं है । यह सिर्फ वहम है, जो अज्ञानी अन्धविश्वासी मनुष्यों को सताता है । प्रत्येक मनुष्य को विश्वास रखना चाहिए कि जो 'भोग' में है वह अवश्य भोगना पडेगा । उसको कोई नहीं टाल सकता । न्याय करने वाला परमात्मा सर्वत्र मौजूद है । संसार में किसी दूसरे की शक्ति नहीं है कि बिना कर्मो या बिना पूर्व जन्म के संस्कार से ईश्वर की न्याय-व्यवस्था के विरुद्ध किसी को अच्छा या बुरा फल दे सके ।

कमल - अच्छा, भूत-प्रेत योनि न सही, लेकिन सुख़-दुःख ग्रहों के कारण तो होता ही है । नव ग्रहों का फल तो भोगना ही पड़ता है । ज्योतिष की बात तो झूठी नहीं हो सकती। ज्योतिष विद्या तो महीनों वर्षों आगे आने वाले सूर्यं-ग्रहण और चन्द्र-ग्रहण आदि का हाल सच्चा बता देती है ।



विमल - सुख दुख ग्रहों के कारण नहीं होता, अपने-अपने कर्म फलों के कारण होता है । जितने भी ग्रह हैं वे न किसी को दुख देते हैं और न किसी को सुख देते हैं । समस्त ग्रह, पृथ्वी पर अपना प्रभाव तो अवश्य डालते हैं, परन्तु उस प्रभाव से जो सुख-दु:ख मिलता है या वस्तुओं में जो परिवर्तन होता है, वह उन वस्तुओं की अपनी ही अवस्था के कारण होता है । जैसे सूर्य ग्रह है उसका प्रकाश सर्वत्र हो रहा है । अब एक वृक्ष पृथ्वी में लगा हुआ है पास में ही दूसरा कटा हुआ पड़ा है । सूर्य की किरणे दोनो वृक्षों पर पड़ रही है । परन्तु जो कटा हुआ पड़ा वह सूख रहा है और जो जमीन में लगा हुआ है वह बढ़ रहा है । जब किरणे दोनो वृक्षों पर समान रुप से पड़ रही है तो एक वृक्ष में क्षीणता क्यों है, और दूसरे में वृद्धि क्यो है? वही सूर्य का प्रकाश पत्थर पर पड़ रहा है वही बर्फ पर पड़ रहा है । परन्तु पत्थर में सख्ती आ रही है बर्फ घुल रही है । उसी सूर्य के प्रकाश में स्वस्थ नेत्रों वाला व्यक्ति. सुन्दर-२ दृष्यों को देखकर प्रसन्न होता है परन्तु जिसकी आँख दुखनी आई हुई है उसे वही सूर्य का प्रकाश दुखदायी प्रतीत हो रहा है अब बताओ इसमें सूरज ने कुछ कर दिया है? सूरज का क्या दोष है? जिस चीज की अवस्था है, उसी के अनुसार उसमें परिवर्तन और हानि लाभ हो रहाहै । देखो! ज्योतिष के दो अंग माने जाते है- गणित और फलित । जहाँ तक गणित का सम्बन्ध है वह सच्चा है और फलित अनुमान की चीज होने के कारण झूठा है । सूर्य ग्रहण या चन्द गणित से सम्बन्ध रखते हैं । इसलिए महीनों वर्षों पहले बताये जा सकते हैं । सृष्टि के आदि से लेकर अन्त तक सूर्य, चन्द्र आदि  अपना-२ कार्य नियम पूर्वक करते हैं । इसलिए उनका गणित बना हुआ है । ज्योतिष के विद्वान ग्रहों गति का ज्ञान रखते है । उन्हें स्पष्ट पता चल जाता है कि अमुक समय चन्द्रमा की छाया सूर्य पर या पृथ्वी की छाया चन्द्र पर पडेगी। अत: अमुक समय में ग्रहण पडेगा । जिस चीज में भी नियमपूर्वक गति है, उसके परिणाम का पता गणित से तत्काल हो जाता है । जैसी घड़ी में नियम पूर्वक गति है । बच्चा भी जिसे घड़ी देखना आता है फ़ौरन कह देगा कि बारह बजने में अभी इतनी देर है | एक बजने में अभी इतनी मिनट बाकी हैं । घडी की सुइयाँ चाहे किन्ही अंकों पर हों परन्तु प्रत्येक मनुष्य कह देगा कि बारह तभी बजेंगे, जब दोनों सुइयाँ बारह के  अंक पर आ जायेगी । इसका पता क्यों चल जाता है? इसलिए कि घडी में नियम पूर्वक गति हो रही है । वास्तव में ज्योतिष गणित की विद्या है, लोगों ने उसमें फलित को जोड़कर बदनाम कर दिया है।



कमल - ज्योतिषी जी जन्म पत्र लिखते हैं, जन्म कुण्डली निकालकर नवग्रहों का हाल सुनाते हैं । जिस पर जो ग्रह खडे होते हैं फौरन बता देते हैं । मैंने कई बार देखा है, किसी पर शनि की ढेया, किसी पर साढे साती, किसी पर मारकेश की दशा, किसी पर राहु केतू का कोप, कहीं पर दिशा शूल, कहीं योगिनी चक्र आदि का हाल खूब बताते हैं। यहीं तक नहीं, तेजी, मन्दी, हानि-लाभ, गढ़ा हुआ धन, रोजगार, हार जीत, लाटरी, मुकदमा तथा भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों की बात बताते हैं । क्या यह सब बाते सत्य नहीं हैं?

विमल - मित्र, तुम निश्चय पूर्वक जानो, यह सारी की सारी भ्रम में डालने की बाते हैं । लोगों ने कमाने खाने का धूर्तता पूर्ण ढंग निकाला हुआ है और कुछ नहीं । भगवान की व्यवस्था के अनुसार जो भोग में है वह कभी नहीं टल सकता । मैं पहले ही तुझसे कह चुका हूँ कि ग्रह स्वयं किसी को सुख-दुख नहीं देते, क्योंकि वे जड़ हैं । सुख-दुख तो कर्मों के कारण मिलता है । देखो! अन्य देशों की अपेक्षा भारत में अधिक ज्योतिषी है । यहीं प्रत्येक कार्यं में ग्रह और नक्षत्र देखे जाते हैं, परन्तु फिर भी भारत सर्वाधिक दीन-हीन और दु:खी है । सब देशों से अधिक बेकारी और नंगे-भूखे भारत में ही मिलेंगे । यह ढाई करोड़ जो विधवाए भारत में हैं, क्या संसार के किसी और देश ने भी हैं । इनके विवाह पोथी पत्र देखकर ही तो किये गये थे? राशि, वर्ग, लग्न आदि सब ही कुछ तो पण्डित ने मिलवाये थे । फिर इतनी  विधवाए कैंसे बन गई । ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ ने  मुहूर्त देख कर लग्न रखा कि प्रात:काल रामचन्द्र की राजगददी होंगी। परन्तु कर्मो की गति अर्थात भोग ऐसा प्रबल निकला कि प्रात:काल होते ही राम वनवासी हो जाते हैं, दशरथ प्राण छोड़ते है । रानियाँ विधवायें होती हैं सीता चुराई जाती है! सूरदास ने इसीलिए कहा है-

करम गति टारे नाहिं टरै।
गुरु वशिष्ठ से पण्डित ज्ञानी रुचि-२ लगन धरै ।
सीता हरन, मरन दशरथ को विपत पै विपत परै ।।

इसी प्रकार तुलसीदास ने कहा है-

लग्न मुहूरत योग ग्रह 'तुलसी' गिनत न काहि।
राम भये जिहि दाहिने सबहि दाहिने ताहि।


इसी प्रकार ग्रहों के चढ़ने उतरने को बात भी बडी विचित्र है । देखो! जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, उसकी परिधि २५००० मील की है । क्या पृथ्वी से १३ लाख गुणा और बोझ में ३३३४३२ गुणा बडा है । यदि हम सौ मील प्रति घण्टे की चाल से चलने वाले हवाई जहाज पर अहर्निशि चलें तो पृथ्वी से सूर्यं तक पहुँचने में १०५ वर्ष लगेंगे । बहुत से ग्रह ऐसे हैं, जिनका प्रकाश पृथ्वी तक आने में लाखों करोडों वर्ष लग जाते हैं ; अब सोचो ऐसे ग्रहों का किसी पर चढ़ना कैंसे सम्भव हो सकता हैं? और फिर मजे की बात यह है कि ग्रह चढे हुए तो लल्ला जी पर होते हैं और मालूम पण्डित जी को होते हैं । किसी मनुष्य पर चींटी चढ़ जाती हैं तो उसे मालूम पड़ जाती है, सांप बिच्छू चढ़ जाता है, तो मालूम पड़ जाता है । यदि हाथी, घोडा चढ़ जाता है, तो मालूम ही नहीं होता बल्कि कचूमर निकल जाता है । परन्तु इन जानवरों से असंख्यो गुने बडे ग्रह ऊपर चढे हुए मालूम ही नहीं देते, यह कैसे आश्चर्य की बात है! वास्तव में यह कोरा ठगों का जाल है, इसने कोई सार नहीं! । जो कुछ भोग और भाग्य में होता है, वही मिलता है| दिशा शूल आदि  भी ढोंग ही है । आज रेल और मोटरों ने सारा दिशाशूल तोड़ दिया । कल्पना करो, किसी का मुकदमा कलकत्ता में चल रहा है । जिस दिन की तारीख है, पण्डित ने कहा, आज न जाओ दिशाशूल है । यदि वह व्यक्ति उस रोज कचहरी में उपस्थित नहीं होता, तो दिशाशूल जाकर क्या उसकी पैरवी करेगा? हर्गिज नहीं । एक सेठ का बम्बई से तार आया फौरन चले आओ नहीं तो कई लाख का घाटा हो जायेगा । सेठ चलने को तैयार हुए, पुरोहित ने कहा आज का दिन ठीक नहीं दूसरे दिन घर से निकले तो बिल्ली रास्ता काट गई । तीसरे दिन मोटर तक पहुँचे और चढ़ने ही बाले थे कि एक मनुष्य छींक बैठा । चौथे दिन घर से चलने लगे, कि बम्बई से तार आ गया कि आपके न आने से २० लाख रुपये का घाटा हो गया है । देखा मित्र बहमों का कैसा भयंकर परिणाम निकला! जो ज्योतिषी गढ़ा हुआ धन और गुप्त बातों के बताने की बात कहते हैं, उसको कोरा ठग समझना चाहिए । यदि वे गढ़े हुए धन को बता सकते हैं तो पृथ्वी में अरबों रुपयों की सम्पति दबी है, स्वयं ही क्यों न उखाड़ लिया करें । जियोलोजी अर्थात् भूगर्भ विद्या के विद्वानों को क्यो माथा पच्ची करनी पड़े । यदि इन ज्योतिषियों को ही पृथ्वी के भीतर की सारी बातें मालूम हो जाया करें तो संसार के देशों की सरकारें जो अरबों रुपया इस विभाग में खर्च करती हैं, क्यों नहीं थोडे से रुपयों में ज्योतिषियों से ही काम चला लिया करें? अतएव किसी व्यक्ति को इन बातों में नहीं पाना चाहिए । अपने कर्म-फल और ईश्वर की न्यायकारिता में अटल विश्वास रखकर बुद्धिपूर्वक शुभ कर्म करना चाहिए । यही मनुष्यता है । 

कमल - मित्र, आप यह बताओं, कि श्राद्ध करना चाहिए या नहीं?

विमल - इस पर कल विचार होगा ।


| ओ३म् |

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