Monday, June 23, 2014

वर्ण व्यवस्था जन्म से या कर्म से?


| ओ३म् |

वैदिक सिद्धांतो पर आधारित

"दो मित्रो की बातें" - पंडित सिद्ध गोपाल कविरत्न


वर्ण व्यवस्था जन्म से या कर्म से?



कमल - मित्र, आज यह बताओ, जाति जन्म से या कर्म से?



विमल - जाति जन्म से है, कर्म से नहीं।



कमल - एक दिन तो तुम कह रहे थे, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कर्म से होते है, आज जन्म से बता रहे हो ।



विमल - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तो गुण कर्म से ही होते हैं, परन्तु जाति जन्म से होती है ।



कमल - इसका क्या मतलब हुआ? क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति नहीं हैं ।



विमल - नहीं, यह तो वर्ण हैं । जाति तो वह है जो जन्म से मृत्यु पर्यन्त रहती है, जिसमें परिवर्तन नहीं होता जैसे मनुष्य जाति, पशु जाति | मनुष्य पशु नहीं बन सकता और पशु मनुष्य नहीं बन सकता जो जिसकी जाति है वही रहेगी!



कमल - तो क्या वर्ण बदल जाता है?



विमल - वर्ण क्यों नहीं बदलेगा? वर्ण का तो अर्थ ही स्वीकार किया हुआ है । 'वर्णो स्वीकार:' जब वर्ण गुण कर्मों से स्वीकार किये है, तो जैसे गुण-कर्म होंगे वैसा ही वर्ण हो जायेगा ।



कमल - तो क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, सारे वर्ण ईश्वर ने नहीं बनाये हैं?



विमल - ईश्वर ने तो जातियाँ बनाई हैं । हाँ, मनुष्य समाज को गुण-कर्मानुसार वर्ण बनाने का उपदेश वेद द्वारा भगवान् ने अवश्य दिया है ।



कमल - कौन-२ से गुण कर्मों से ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य आदि वर्ण बनते हैं?




विमल - वेद ने तो शरीर का दृष्टान्त देकर समझाया है-

ब्राह्मणोंस्य मुखमासीद बाहू राजन्य: कृत: ।
ऊरु तदस्य यद्वैश्य पद्भ्याम शूद्रोजायत || यजु० ३१११


अर्थात् समाज रुपी शरीर का ब्राह्मण 'मुख' है क्षत्रिय 'बाहु' है, 'पेट' वैश्य है और 'शूद्र' 'पैर' है । इस दृष्टान्त से यह बात निकलती है कि शरीर के अंगों में मुख, ज्ञान प्रधान अंग है क्योंकि मुख में कान, नाक, आँख, जिव्हा आदि सारी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । दूसरे सर्दी, वर्षा आदि ऋतुओं में सारा शरीर वस्त्रो से ढक लिया जाता है, परन्तु मुख सदैव खुला रहता है, वह सर्दी, गर्मी आदि ऋतुओं के कष्ट को बराबर सहन करता है । तीसरे मुख जो भी ग्रहण करता है, वह अपने पास नहीँ रखता, दूसरे को दे देता है । इससे सिद्ध होता है की जिस व्यक्ति में ज्ञान, तप और त्याग है, वह 'ब्राह्मण' है । बाहुओं को 'क्षत्रिय' बतलाने का मतलब यह है कि बाहु अर्थात् हाथ बल प्रधान होते है, जब कोई शरीर पर आक्रमण होता है, तो हाथ सबसे पहले शरीर की रक्षा करते हैं । अतएव जो न्याय पूर्वक अपने बल से प्रजा की रक्षा करे वह क्षत्रिय है । पेट को वैश्य कहने का मतलब यह है, पेट सारा भोजन अपने अन्दर एकत्र करता है और फिर उसका ठीक-२ पाचन करके प्रत्येक अंग को यथा योग्य हिस्सा देता है । अत: जो धन को एकत्र करके मनुष्य समाज में यथोचित नियमानुसार वितरण करता है, वह वैश्य है । पैरों को 'शूद्र' इसलिए कहां है कि- पैर प्रथम तो सारे शरीर का बोझ उठाये हुए हैं, दूसरे परिश्रम करके, सिर, पेट, हाथ आदि अंगों को उसी स्थान पर पहुंचा देते है, जहाँ जाना है । उनके पास 'ज्ञान' 'बल' और 'धन' तो है नहीं, जो उससे कार्य कर सकें । उनके पास परिश्रम करने की शक्ति है इससे वे समाज रुपी शरीर की सेवा करते हैं । इससे निष्कर्ष यह निकला जो सेवा प्रधान हैं, 'शूद्र' है । ब्राह्मण ज्ञान से, क्षत्रिय बल से, वैश्य धन से और शूद्र सेवा से मनुष्य समाज की सेवा करे  यही वर्णो का वर्णत्व है ।

कमल - मै तो देखता हूँ ज्ञान, बल, धन और परिश्रम प्रत्येक मनुष्य में थोड़ा बहुत पाया जाता है । इस दृष्टि से तो प्रत्येक मनुष्य चारों वर्ण वाला है । फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि की व्यवस्था बन कैंसे सकती है?



विमल - यह ठीक है प्रत्येक मनुष्य में चारों वर्णो की योग्यता है, परन्तु जिस मनुष्य में जो चीज मुख्य है उसके आधार पर वर्ण माना जाता है । प्रत्येक मनुष्य में कोई न कोई एक मुख्य बात अवश्य है । कोई धनवान है, कोई गुणवान् हैं, कोई बलवान् है, कोई सेवक है । उसी के आधार पर उसका वर्ण है । वेद ने तो बीज रुप से अलंकारिक वर्णन कर दिया है, बुद्धिमानों ने उस अलंकार का रहस्य निकाला है ।



कमल - जरा स्पष्ट रुप से समझाओ, कौन-२ से काम करने वाला कौन-२ से वर्ण में आता है?

विमल - जिसमें शम, दम, तप, पवित्रता, शान्ति, कोमलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता है, वह व्यक्ति 'ब्राह्मण' है । जिसमें वीरता, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध से न भागने का स्वभाव तथा दानशीलता और न्यायकारी ईश्वर की तरह न्याय करने का भाव है वह 'क्षत्रिय' है । जो कृषि, गोरक्षा, दान और वाणिज्य व्यवसाय में निपुण है वह 'वैश्य' है और जो केवल अपने शरीर से सेवा करने में निपुण है, वह 'शूद्र' है।



कमल - यदि वर्णो को जन्म से माने तो वया आपत्ति है? करोड़ो लोग वर्ण जन्म से मानते हैं ।



विमल - जो लोग जन्म से वर्ण मानते है, उनके अनुसार भी वर्ण कर्म से ही सिद्ध होता है । क्योंकि उनके मत में भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णो को 'द्विज' माना जाता है । शूद्र को एकज माना जाता है । द्विज का अर्थ है जिसके दो जन्म हो । "द्वाभ्यां जायते इति द्विज:" संसार में जिनके भी दो जन्म होते हैं, वे 'द्विज' कहलाते हैं जैसे दाँत, या पक्षी । दांत 'द्विज' क्यो कहलाते है? इसलिए इनके दो जन्म होते है । बच्चे के दूध के दाँत टूट जाते है दुबारा उनका फिर जन्म होता है । पक्षी 'द्विज' इसलिए कहाते हैं कि उनके भी दो जन्म होते हैं । पहले तो अण्डे का जन्म होता है । फिर अण्डे से पक्षी का जन्म होता है । अब सोचना यह है कि यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य द्विज हैं तो दूसरा जन्म इनका कौन सा है? माता-पिता के यहाँ जन्म से तो सभी'एकज़' अर्थात् एक जन्म वाले है फिर 'द्विज' अर्थात् दो जन्म वाले कहाँ से बने? उत्तर मिलता है, माता-पिता के बाद आचार्य द्वारा जो जन्म मिलता है, उससे द्विज बने । आचार्य ने योग्यता अनुसार उनको वर्ण प्रदान किया है । वास्तव में प्राचीन काल में वर्ण के बनाने की यहीं व्यवस्था थी । सभी अपने पुत्रो को गुरुकुल में भेज देते थे । बाद में पढ़ लिखकर जैसी उऩमें योग्यता होती थी, उसी के अनुसार आचार्य उन्हें वर्ण की उपाधि दे देता था ।



कमल - क्या ब्राह्मण का लड़का ब्राह्मण और शूद्र का लड़का शूद्र नही होता?



विमल - यह कोई विशेष आवश्यक नहीं कि ब्राह्मण का लड़का ब्राह्मण और शूद्र का लड़का शूद्र ही हो । जैसे कि यह आवश्यक नहीं डाक्टर का लड़का डाक्टर या मास्टर का लड़का मास्टर और वकील का लड़का वकील हो। क्योंकि जब पिता जैसी लड़के में योग्यता नहीँ होगी तो वह अपने पिता के पद पर पहुँच कैसे सकेगा ?


कमल - मै तो यह समझता हूँ जैसे गधे से गधा और घोड़े से घोड़ा, आम से आम और सेव से सेव उत्पन्न होता है वैसे ही ब्राह्मण से ब्राह्मण और शूद्र से शूद्र उत्पन्न होता है ।



विमल - मैं पहले कह चुका हूँ कि गधा, घोडा आदि जातियाँ हैं । जाति से जाति उत्पन्न होती है। परन्तु ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि तो वर्ण है वह तो कर्मानुसार बदलते ही रहते हैं । जातियाँ कभी नहीं बदलती । गधे, घोड़े नहीं बन सकते । जो हैं वही रहेंगे ।


कमल - मेरे विचार में तो वर्ण भी नहीं बदलते । भगवान् ने जो जिसका वर्ण बना दिया है वही रहता है ।

विमल - यह बात खूब कही कि वर्ण नहीं बदलता है! अच्छा यह तो बताओ यदि वर्ण नहीं बदलता तो कोई ब्राह्मण या क्षत्रिय, मुसलमान या ईसाई कैंसे बन जाता है? इस भारत के आठ करोड़ मुसलमानो में ८० फीसदी ऐसे है जो हिन्दु से मुसलमान बने है और इनमें चारों वर्ण के लोग मौजूद है, ये कैसे बदल गये? अगर वर्ण भगवान के बनाये हुए होते तो ये लोग कभी बदल सकते थे? कदापि नहीं । जो चीज भगवान की बनाई हुई होती है उसमें परिवर्तन होता ही नहीं । देखो भगवान का बनाया हुआ आम कभी सेब बन सकता है? भगवान का बनाया शेर कभी हाथी बन सकता है? दुनियाँ की किसी चीज को लो जो भी भगवान की बनाई हुई है वह अपरिवर्तनशील है । यदि भगवान का बनाया हुआ ब्राह्मण होता तो ब्राह्मण ही रहता और मुसलमान मुसलमान ही रहता । परन्तु ऐसा नहीं होता गुण-कर्म के बदल जाने से न तो ब्राह्मण ब्राह्मण रहता है और न मुसलमान मुसलमान रहता है ।



कमल - मित्र, ब्राह्मण तो ब्राह्मण ही रहता है, चाहे वह भले ही मुसलमान या ईसाई हो जाये । हाँ, इतना कहा जा सकता है कि वह मुसलमान या ईसाई होने पर उस काम का नहीं रहता जिस काम का रहना चाहिए। जैसे लड्डू के नाली में गिर जाने पर लड्डू रहता है पर वह खाने के काम का नहीं रहता।

विमल - वाह, तुमने क्या अच्छा तर्क किया है, मुसलमान और ईसाई होने पर भी ब्राह्मण ही रहते है । अच्छा अगर यह बात है, तो फिर उसे ब्राह्मण ही क्यो नहीं कहते हो, मुसलमान या ईसाई क्यों कहते हो? अथवा 'मुसलमान ब्राह्मण' या 'ईसाई ब्राह्मण' क्यो नहीं कहते हो? लड्डू की भी खूब मिसाल दी! यह तो बताओ नाली में गिर जाने पर लड्डू तो काम का नहीं रहता परन्तु किसी पिता का पुत्र नाली में गिर पड़े तो वह पुत्र भी पिता के काम का रहता है, या नहीं? किसी की गाय या भैंस नाली में गिर पड़े तो वह भी काम की रहती है या नहीं अच्छा, और लो यदि तुम्हारी यह घड़ी ही नाली में गिर पड़े तो फिर यह तुम्हारे काम की रहेंगी या नहीं? यह तो ठीक है नाली में गिर जाने पर लड्डू लड्डू ही रहता है । क्योंकि जिसकी जैसी शक्ल बनी हुई है वह तो रहेगी ही। परन्तु यह आवश्यक नहीं कि हर एक चीज नाली में गिर जाने से काम की नहीं रहती । लड्डू खाने के काम का नहीं रहता, परन्तु रुपया गिर जाने पर सदा काम का रहता है । लड्डू का उदाहरण वर्णो पर नहीं घटता जातियों पर घटता है । जैसे नाली में गिर जाने पर लड्डू है लड्डू ही रहेगा, जलेबी नहीं बन सकता, वैसे ही नाली में गिर जाने पर मनुष्य, मनुष्य ही रहेगा गधा, घोड़ा नहीं बन सकता । जो जिसकी आकृति बनी हुई है, वह कैसे बदल सकती है? जाति और वर्ण में यही तो अन्तर है कि जाति आकृति से जानी जाती है और वर्ण गुण कर्मों से जाने जाते है ।



कमल - तो क्या वर्ण शक्ल से नहीं जाने जाते?



विमल - कभी नहीं | वर्ण गुण-कर्मो से जाने जाते हैं। यदि शक्ल से जाने जाते, तो फिर किसी से पूछने की क्या जरुरत थी कि "तुम्हारा वर्ण क्या है?" तुम ब्राह्मण हो या क्षत्रिय हो? यही तो एक बात है जो प्रमाणित करती हैं, कि वर्ण जन्म से नहीं, गुण कर्म से है । यदि ईश्वर ने जन्म से वर्ण बनाये होते तो उसकी पहिचान के लिये उनमें कुछ न कुछ भेद अवश्य करता । जितनी ईश्वर की बनाई चीजें हैं, उनकी पहिचान के लिए सबमें आकृति भेद पाया जाता है । एक लाइन में हाथी, घोडा, ऊँट, भैंसे, हिरन, सूअर, तोता, कबूतर आदि जानवरों को खड़ा कर दो, बच्चा भी उनकी सूरतों को देखकर बता देगा, 'यह गाय हैं' 'यह घोड़ा हैं' 'यह हाथी है' एक जगह सेब, सन्तरा, आम, अमरुद, अनार आदि फल रख दो । प्रत्येक मनुष्य उनकी शक्ल को देखकर बतला देगा कि यह आम है, यह अनार है, यह सन्तरा है । परन्तु यदि चारों वर्णो के दो हजार मनुष्यों को एक लाइन ने खड़ा कर दो, अपरिचित मनुष्य उन्हें कभी न बता सकेगा यह कौन-२ वर्ण के आदमी हैं ।



कमल - क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, रंग-रुप से बिलकुल नहीं पहिचाने जाते? मैंने बड़े-२ विद्वानों से सुना है, वर्ण ईश्वर के बनाये हुए हैं ।



विमल - फिर वही बात! मैं कह चुका हूँ, वर्ण कर्म से होते है जन्म और रंग-रुप से नहीं । यदि रंग-रुप से होते तो उसकी पहिचान के लिए ब्राह्मण का रंग सफेद होता, क्षत्रिय का लाल होता वैश्य का काला होता । परन्तु ऐसा नहीं है । काश्मीर के भंगी और मद्रास के ब्राह्मण का मुकाबिला करके देख लो भंगी गोरा और खूबसूरत मिलेगा, ब्राह्मण तवे से भी ज्यादा काला मिलेगा । व्यंग में लोग कहते हैं, कि एक दफा काले तवे और मद्रास के ब्राह्मण में मुकदमा चला गया ब्राह्मण कहता था मैं ज्यादा काला हूँ और तवा कहता था मैं ज्यादा काला हूँ। आखिर जज ने फैसला ब्राह्मण के हक में ही दिया । देखो! क्वेटा और बिहार के भूकम्प में सैकडों छोटे-२ बच्चे मलवे में नीचे दबे हुए निकले उन बच्चो में सभी वर्णों के बच्चे थे । उनके   माँ-बाप, सगे सम्बन्धियो का कुछ पता नहीं चला । बताओ वे बच्चे किस वर्ण में गिने जायेंगे? अगर रुप रंग और शक्ल सूरत के आधार पर वर्ण होता तो गाय, भैंस के बच्चों की तरह वे पहिचान लिये जाते या नहीं? तुमने बड़े-२ विद्वानों से सुना होगा, मैं कब कहता हूँ कि नहीं सुना होगा । सुनने में तो सभी बातें आती हैं, परन्तु ठीक वही होती है जो "दो और दो चार" की तरह सत्य होती है । देखो, ईश्वर यदि जन्म से वर्ण बनाता तो और कुछ भेद न भी करता मगर इतना तो अवश्य ही कर देता कि ब्राह्मण का शरीर ८ फुट का क्षत्रिय का ६ फुट का, वैश्य का ४ फुट का और शूद्र का तीन फुट का बना देता ताकि पहचानने में सुविधा हो जाती, या फिर शरीर के बोझ में ही कमीबेशी कर देता । ब्राह्मण का शरीर ४ मन का, क्षत्रिय का ३ मन का, वैश्य का २ मन का, और शूद्र का १ मन का बना देता ताकि लोग वर्णों का भेद जान तो लेते । परन्तु उसे तो मनुष्य की उन्नति के लिए गुण कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था बनाने का उपदेश देना था, यह उन चीजो में भेद करता ही क्यों?



कमल - अच्छा, इन ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों में सबसे बड़ा वर्ण कौन सा हैं ?



विमल - इन वर्णो में न कोई बड़ा है और न ही छोटा है । अपने-२ कर्तव्य कर्मों में सब बड़े हैं। जैसे शरीर के अंगों में, जब विचार विवेक का अवसर आता है उस समय शिर बड़ा है, जब रक्षा करने का समय आता है तब 'हाथ' बड़े है जब भोजन को पकाने और शरीर के प्रत्येक अंग को यथायोग्य भोजन का सार पहुंचाने का अवसर आता है तब पेट बड़ा है और जब परिश्रम पूर्वक शरीर के भार को उठाने और आने-जाने का अवसर होता है, तो पैर बड़े हैं । इसी प्रकार मनुष्य समाज की 'ज्ञान' से सेवा करने का जब समय आता है तो उस समय ब्राह्मण बड़े हैं । 'बल' से सेवा करने का समय आता है तो क्षत्रिय बड़े है । 'धन' से सेवा करने का समय आता है तो वैश्य बड़े हैं और शरीर से सेवा करने का समय आता है, तो शूद्र बड़े हैं | वैसे स्वतन्त्र रुप से वर्णों में एक दूसरे से न कोई बड़ा  है और न छोटा है ।



कमल - मेरा तो विचार यह था कि वर्णो में ब्राह्मण सबसे बड़े हैं उससे छोटे क्षत्रिय, उससे छोटे वैश्य और उससे छोटे शूद्र हैं?



विमल - नहीं यह बात नहीं है । स्वतन्त्र रुप से ब्राह्मण-ब्राह्मणों में, क्षत्रिय-क्षत्रियो में, वैश्य-वैश्यों में और शूद्र-शूद्रो में तो योग्यतानुसार छुटाई-बड़ाई हो सकती है, परन्तु स्वतन्त्र रुप से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि वर्णो में छुटाई-बड़ाई का सम्बन्ध कैसे हो सकता है? जैसे दो हलवाई है । एक ५) रोज का कारीगर है, दूसरा १०) रोज का कारीगर है । अब इन दोनों में तो छुटाई-बड़ाई मानी जा सकती है कि एक घटिया कारीगर है दूसरा बढिया कारीगर है । परन्तु कोई व्यक्ति कहने लगे कि हलवाई से दर्जी बड़ा है क्योंकि १५) रोज का कारीगर है भला यह क्या बात हुई? हलवाई और दर्जी में तुलना क्या है हलवाई अपने क्षेत्र में बड़ा है दर्जी अपने क्षेत्र में बड़ा हैं। अपने-२ कर्तव्य कर्मों में दोनो ही बड़े हैं । हाँ, दर्जी-दर्जी में योग्यता कि दृष्टि से छोटा-बड़ापन अवश्य माना जा सकता है । ठीक इसी प्रकार योग्यतानुसार एक वर्ण के दो व्यक्तियों में छोटा बड़ापन हो सकता है परन्तु ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्रो में छोटे-बड़े यह क्या सम्बन्ध है, जबकि उन सबके गुण, कर्म और क्षेत्र भिन्न-२ हैं? वहाँ सभी वर्ण अपने-२ कर्तव्य पालन में बड़े है ।


कमल - क्या "वर्ण व्यवस्था" दूसरे देशों में पाई जाती है?


विमल - संसार के समस्त देशों मे गुण कर्मानुसार वर्णव्यवस्था है । यह और बात है कि वर्णो के नाम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र न होकर 'मिशनरी', 'मिलिटरी',  'मर्चेन्टस' औऱ 'मिनियल्स' रख लिए गये है । यह श्रम-विभाग अथवा 'कर्म-विभाग' का सिद्धान्त सारे संसार में अंतर्व्याप्त है । इसी का नाम वर्ण-व्यवस्था है।


कमल - मित्र, अब मै समझ गया आपकी बड़ी कृपा हुई । अच्छा यह तो बताओ कि नमस्ते कहाँ से चली?


विमल - इस विषय को कल समझाएंगे |


| ओ३म् |

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